राजनीतिक रूप से बालिग हुए राहुल
जनवरी 2004 में जब प्रियंका गाँधी अपने भाई राहुल को पहली बार मीडिया और अमेठीवासियों से मिलवा रही थीं तो कई और पत्रकारों के साथ मैं भी वहाँ मौजूद था.
राहुल सबसे मिले. लेकिन उनमें काफ़ी हिचकिचाहट थी. कुछ शर्मीले और अंतरमुखी हैं भी वे. कुछ जगह वह लोगों से मुखातिब भी हुए. शायद एक-आध भाषण भी हुआ था. कुछ पक्का ध्यान नहीं पड़ता. लेकिन हम सभी पत्रकारों का निष्कर्ष लगभग एक ही था.
राहुल अपनी उम्र से भी ज्यादा छोटे और राजनीतिक पप्पू या कच्ची कौड़ी लगते थे.
इन पाँच वर्षों में कई बार राहुल को देखने-सुनने का मौक़ा मिला. सभी अनुभव से सीखते हैं. राहुल भी सीखें हैं, बदले हैं और बड़े हुए हैं.
और मंगलवार को जब राहुल दिल्ली में प्रेस कांफ़्रेस कर रहे थे तो उन्हें सुनते हुए मैं सोच रहा था कि 2009 की चुनावी मुहिम के दौरान कैसे देखते-देखते जैसे राहुल राजनीतिक रूप से बालिग हो गए हैं और मीडिया एवम् आम जनता कि नज़र में कैसे पार्टी महासचिव रहते हुए भी वह कांग्रेस के शीर्ष नेता बन गए हैं.
वर्ष 2004 का राजनीतिक पप्पू सयाना हो गया है. उसकी बातों में, पत्रकारों को उत्तर देने के तेवर और अंदाज़ में एक नया विश्वास और परिपक्वता है.
पिछले पाँच वर्षों के अपने सफ़र में राहुल ने हिचकिचाहट, अनिश्चय और राजनीतिक बातों के प्रति अपनी उदासीनता को पीछे छोड़ा है पर अपनी ताज़गी और ईमानदारी को बरक़रार रखा है.
बहुत लोगों का मानना है कि राहुल गाँधी मे एक 'सिनसेरिटी' या ईमानदारी तो है पर अपनी बहन प्रियंका जैसा करिश्माई जादुई व्यक्तित्व नहीं है.
100 लोगों के समूह के साथ बातचीत में तो राहुल का कोई सानी नहीं है पर जनसभा में एकत्रित भीड़ के साथ वह उस तरह का डायलॉग या संबंध नहीं स्थापित कर पाते जो एक 'नेचुरल' नेता या राजनीतिज्ञ कर सकता है.
अंतर शायद स्टाइल और सब्सटैंस का है. राहुल के पास सोच या सब्सटैंस तो है. उनके समर्थकों का कहना है स्टाइल भी जनसैलाब को लुभाने का और उससे सीधा रिश्ता बनाने का धीरे-धीरे आ जाएगा.
जनवरी 2004 में जब प्रियंका गाँधी अपने भाई राहुल को पहली बार मीडिया और अमेठीवासियों से मिलवा रही थीं तो कई और पत्रकारों के साथ मैं भी वहाँ मौजूद था.
राहुल सबसे मिले. लेकिन उनमें काफ़ी हिचकिचाहट थी. कुछ शर्मीले और अंतरमुखी हैं भी वे. कुछ जगह वह लोगों से मुखातिब भी हुए. शायद एक-आध भाषण भी हुआ था. कुछ पक्का ध्यान नहीं पड़ता. लेकिन हम सभी पत्रकारों का निष्कर्ष लगभग एक ही था.
राहुल अपनी उम्र से भी ज्यादा छोटे और राजनीतिक पप्पू या कच्ची कौड़ी लगते थे.
इन पाँच वर्षों में कई बार राहुल को देखने-सुनने का मौक़ा मिला. सभी अनुभव से सीखते हैं. राहुल भी सीखें हैं, बदले हैं और बड़े हुए हैं.
और मंगलवार को जब राहुल दिल्ली में प्रेस कांफ़्रेस कर रहे थे तो उन्हें सुनते हुए मैं सोच रहा था कि 2009 की चुनावी मुहिम के दौरान कैसे देखते-देखते जैसे राहुल राजनीतिक रूप से बालिग हो गए हैं और मीडिया एवम् आम जनता कि नज़र में कैसे पार्टी महासचिव रहते हुए भी वह कांग्रेस के शीर्ष नेता बन गए हैं.
वर्ष 2004 का राजनीतिक पप्पू सयाना हो गया है. उसकी बातों में, पत्रकारों को उत्तर देने के तेवर और अंदाज़ में एक नया विश्वास और परिपक्वता है.
पिछले पाँच वर्षों के अपने सफ़र में राहुल ने हिचकिचाहट, अनिश्चय और राजनीतिक बातों के प्रति अपनी उदासीनता को पीछे छोड़ा है पर अपनी ताज़गी और ईमानदारी को बरक़रार रखा है.
बहुत लोगों का मानना है कि राहुल गाँधी मे एक 'सिनसेरिटी' या ईमानदारी तो है पर अपनी बहन प्रियंका जैसा करिश्माई जादुई व्यक्तित्व नहीं है.
100 लोगों के समूह के साथ बातचीत में तो राहुल का कोई सानी नहीं है पर जनसभा में एकत्रित भीड़ के साथ वह उस तरह का डायलॉग या संबंध नहीं स्थापित कर पाते जो एक 'नेचुरल' नेता या राजनीतिज्ञ कर सकता है.
अंतर शायद स्टाइल और सब्सटैंस का है. राहुल के पास सोच या सब्सटैंस तो है. उनके समर्थकों का कहना है स्टाइल भी जनसैलाब को लुभाने का और उससे सीधा रिश्ता बनाने का धीरे-धीरे आ जाएगा.
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Dharamvir Nagpal
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